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रविवार, 26 अक्तूबर 2014

पंडित जी तो झेंप गए....


इस बार दीवाली पर हर बार की तरह लक्ष्मी पूजन का आयोजन किया गया।पंडित जी आए और पूजा शुरू की गई,एक-एक करके सभी कार्य विधि-विधान से सम्पन्न हुए।जब आरती लेने का वक्त आया तो सबसे पहले हमारे बाँस ने आरती ली और पाँच सौ का नोट थाली में रख दिया।इसके बाद वहां के सुपरवाइजर और मैनेजर ने भी वही किया आरती ली और सौ का नोट थाली में रख दिया।
इसके बाद निचले क्रम के कर्मचारियों की बारी आयी। जैसे ही पहला कर्मचारी थाली में बिना कुछ डाले आरती लेकर चलने लगा,तभी पंडित जी तुरंत बोल पडे,बेटा हाथ में कुछ लेकर आरती लो तभी मां प्रसन्न होगी।उनके इतना कहते ही हम सभी के हाथ अपनी-अपनी जेबों में चले गए और सबने आरती ले ली ।
इस सब के बाद जब पंडित जी जाने लगे तो दरवाजे पर खडे चपरासी ने उन्हें रोका और बोला ,पडित जी आपने थोडे से पौसों के लिए अपनी प्रतिष्ठा गंवा दी।पंडित जी सबकुछ समझ गए और आंखें नीची करके वहां से चुपचाप निकल गए।मैं पास ही खडा होकर यह सब देख रहा था।मैं उसके पास गया और उसके कंधे पर हाथ रखकर उत्साह से उसे देखा , तो उसने पूछा , बाबूजी हम इंसानों की तरह क्या मां पैसों की भूखी हैं?मैंने सिर हिलाकर ना में उत्तर दिया और वहां से निकल गया ।
                  तरूण कुमार (सावन)

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

जन-जन की भाषा हैं हिंदी


14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाते हुए हमें पचास साल से अधिक समय हो गया।  इतने सालों में बस एक  ही काम हुआ हैं। बडे-बडे मंचों पर बडे-बडे कवि, लेखक,साहित्यकार या तो हिंदी की उपलब्धिया गिनाते फूले नहीं समाते। या फिर अग्रेजी के बडते कद को लेकर लालत-मलालत कर रहें होते हैं। लेकिन इस सब से परे एक नई सोच को समाज में विस्तार देने का काम किया जा रहा हैं। जाने माने कवि कुमार विश्वाश ने कई बार मंच पर यह कहते सुने गए ``हिंदी का सबसे बडा नुकसान उन्होंने कर दिया जिन्होंने कठिन हिंदी लिखी।`` यह सिर्फ किसी व्यक्ति विषेश की सोच नहीं हैं। इसका पालनकर्ता साहित्य समाज का एक बडा तबक़ा हैं। जो दबी ज़वान में इसका समर्थन अवश्य कर रहा हैं। हिंदी को अगर ख़तरा हैं तो इस फैलती हुई सोच से हैं। यह तर्क मेरे जैसे समान्य बुध्दि रखने वाले प्राणी की समझ से परे हैं। क्योंकि क्या अब हमें अपनी ही मातृभाषा में सरल और कठिन के नए मापदंड स्थापित करने होगे? क्या माँ भी सरल और कठिन होती हैं? इसका अर्थ यह ही हुआ की अब हमें हिंदी के शब्दकोश से उन सभी शब्दों को बहार का रास्ता दिखा देना चाहिए जो कठिन हैं और चलन से बहार हो गए हैं। एक समृध्द शब्दकोश को दयनियता की अंधी भट्टी में झोक दे। जहाँ वह अन्य भाषाओं के बोल चाल के शब्दों को ग्रहण कर असुध्दियों की गर्क में समा जाए। जैसा की आज हो रहा हैं। कवि व लेखक सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए बोल चाल के समान्य शब्दों के अलवा अग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं कर रहें हैं। इसके बजाय एक अच्छी स्थति यह हो सकती हैं। हम नए शब्दों सृजन कर शब्दकोश का विकास करें। जो शब्द चलन से बहार हो गए हैं, उन्हें साहित्य के माध्यम से मुख्य धारा से जोडने का प्रयास करें।
हिंदी का विकास जब तक नहीं हो सकता। जब तक हम एक मत होकर यह स्वीकार न कर ले कि आज हिंदी अपने ही घर में असुरक्षित महसूस कर रही हैं। जब से तरूणों के हाथों में मोबाईल कम्पूटर आया हैं, वह हिंदी से और दूर हो गया हैं। जहां पहले वह पत्रों के माध्यम से हिंदी में पत्र व्यवहार करता था। आज अग्रेजी में मेल कर रहा हैं। हिंदी के शब्दों को भी अग्रेजी में लिख रहा हैं। जबकि कम्प्यूटर व मोबाईल में हिंदी लिखने की सूविधा मौजूद हैं। हिन्दुस्तान का तरूण अग्रेजी का हस्ताक्षर बन कर रह गया हैं।
एक बार संसद में चर्चा के दौरान किसी विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए। गृह मंत्री पी चिदंबरम जी ने कहा था कि `` मैं अपनी बात अग्रेजी में इतनी अच्छी तरह से नहीं कह सकता जितनी मेरे मित्रों ने इस विषय पर हिंदी में कहीं `` इस बात से प्रमाणित हो जाता हैं। टुटी-फुटी अग्रेजी भाषा के आवरण में लपेट कर हम खुद को कितना भी अग्रेजपरस्त दिखाना चाहें। लेकिन आज भी हमारे ह्रदय में हिंदी ही निवास करती हैं। जनमान्यों की भाषा भले ही न हो, पर जन-जन की भाषा आज भी हिंदी ही हैं।
                  तरूण कुमार, सावन    

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

कविता के लिए कविता


हाँ आज याद आ रहीं हैं कविता
बहुत दिल दुखा रहीं हैं कविता ।
ये वो कविता नहीं जिसे मैंने कभी
पढ़ा हो,या रचा हो
यह वो कविता हैं
जिसे मैने महसूस किया हैं
जो फुलों सी महक़ का अहसास हैं
जो दो खामौश अधरों की प्यास हैं
जो सागर सी इठलाती,बलखाती हैं
जो तुम्हारे साथ बिताए लम्हों पर इतराती हैं
और हर दिन सजाती हैं इक़ नई कविता।
हाँ आज याद आ रहीं हैं कविता
बहुत दिल दुखा रहीं हैं कविता ।
            
          तरूण कुमार,सावन

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

सुर क्षेत्र से रण क्षेत्र तक


हमने कभी सुरों को सरहदों की सीमाओं में नहीं बांधा।हमने तो संगीत को फिजाओं में घोल दिया हैं।अगर कोई हमारी आवाज से आवाज मिलाना चाहता हैं तो उसका स्वागत होना चाहिए।सुर क्षेत्र एक टीवी कार्यक्रम हैं। इस शो में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान की प्रतिभाओं को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिल रहा हैं।होना तो यह चाहिए था कि संगीत के माध्यम से दोनों देशों के बीच प्रेम,शांति और सदभाव का प्रसार होता।मगर संगीत में राजनीति की दखलंदाजी ने इसे बहस का मुद्दा बना दिया हैं।
 राज ठाकरे के बयान के जवाब में संगीत की कोई सरहद नहीं होती कह कर आशा भोंसले ने उन्हें टका सा जवाब दे दिया हो लेकिन सवाल अभी बाकी हैं। पाकिस्तानी कलाकारों को भारत में काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं?सवाल जेरे बहस इसलिए भी है क्योंकि पाकिस्तान में हमारे देश के कलाकारों पर प्रतिबंध लगा हुआ है।वहां उनका इस तरह से मान-सम्मान व स्वागत नहीं होता।
 विवाद भले ही ठंडा हो गया हो लेकिन मैं यहां शिवसेना की बात को बहुत हद तक सही कहूंगा कि जब बहुत सारे भारतीय कलाकार मौजूद हैं उन्में पर्याप्त प्रतिभाएं हैं, जो मौके की तलाश में हैं उन्हें मौका देना चाहिए।क्योंकि जिन लोगों को पहले मौका देने की बात की जा रही हैं ये वही लोग हैं जिन्होंने आपको इस मुकाम पर पहुंचाया हैं।अपने देश में पल रही प्रतिभाओं की अनदेखी करना उचित कदम कतई नहीं माना जा सकता।ऐसा पहली बार नहीं हो रहा कि पाकिस्तानी कलाकार भारत में दिखाए जाने वाले शो का हिस्सा बनने जा रहे हैं। लाईफ-ओके चैनल पर दिखाए गए काँमेडी शो में कई पाकिस्तानी कलाकार मौजूद थे।इसे देखते हुए लगता तो यही हैं कि ये शोरगुल इस कार्यक्रम के लिए टीआरपी जुटाने का हथकंडा हो सकता हैं।
 आजकल चैनलों पर इतने सारे रियलटी शो हैं जो टीआरपीको बढावा देने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।अगर यह प्रचार का हिस्सा नहीं हैं तो यह विरोध गैर जरूरी मुद्दा हैं।कला और कलाकार को किसी सरहद में नहीं बांधा जाना चाहिए। लेकिन राज ठाकरे,शिवसेना व अन्यलोगों व्दारा दिए गए बयानों ने इसे एक राजनीतिक मुद्दा अवश्य बना दिया हैं । वजह चाहे जो भी हो पहल एक तरफा नहीं होनी चाहिए।केवल उन्हीं पाकिस्तानी कलाकारों का स्वागत हो जिनमें यह कहने का बूता हो कि उनके देश में भारतीय कलाकारों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना गलत हैं।
               तरूण कुमार (सावन) 
              

ड़ीएलए समाचार पत्र में 2अक्टूबर 2012 को प्रकाशित